देश  की आजादी का जब पत्रकारिता की भाषा बना तब ज्यादा उन भ्रष्ट नेता अफसरों को करने की जरूरत है जिन्होंने भ्रष्ट कलम का सिपाही बार्डर के सिपाही से ज्यादा जोखिम उठाता है

कलम का सिपाही बार्डर के सिपाही से ज्यादा जोखिम उठाता है 


देश  की आजादी का शंखनाद जब पत्रकारिता की भाषा बना तब ददेश उद्देलित हुआ। इस पर कलंक राष्ट्र को कलंकित करने जैसा दुश्चरित्र है। आज की बिगडैल पत्रकारिता पर प्रश्न चिन्ह क्यूं ना लगे, जब पत्रकारिता पेट पालने, ब्लैकमेलिंग से पैसा कमाने, और राजनेताओं की गुलामी करने का साधन बनी हुई है, जो बेकार हैं वो पत्रकार हैं, ऐसी परिभाषा से पहचाने जाने वाले इस जीव को देखते ही अधिकार, सामाजिक संस्थान तथा व्यापारियों की भौंहे तन जाती हैं। मुंह में आदर और मन में गाली ऐसी भावना को जानता पहचानता हुआ, व्यक्ति जब अगले को धौंस देता है तो उसकी हुड़की के परिणाम 100-200 रुपये की भीख मिल जाती है जिस अपमानित पैसे को वह देवेन्द्र पाण्डेय, अपनी कर्मठता का परितोषक मानकर नए ठिकाने की नीति वार्ता खोज मे निकल पड़ता है। देश में मीडिया हॉउस खुल गए हैं, जहां पैसे के दम पर सत्यता को झूठ और झूठ को सत्य सावित करने का काम पूरी तन्मयता से किया जाता है, चिंतनीय है की पत्रकारिता से विश्वसनियता पूरी तरह समाप्त हो चुकी है। समाचारों में नफरत और ब्लैकमेलिंग के समाचारों की बहुल्लता के चलते ही समाज विघटन की ओर अग्रसर है। कभी सच्ची पत्रकारिता देश हित का सर्वोत्तम आंदोलन थी, त्याग, तप से अर्जित भरोषे का सम्मान इस गुलाम भारत मे भी हुआ। समाचारों में छपी खबरों की सत्यता पर संदेह की गुंजाइश न थी, तभी देश की आजादी का आंदोलन स्विकारने सफल हुआ। पत्रकारों के सानिध्य हेतु जहा लोग तरसते थे आज उस देश में कलमकार अपमानित हैं कारण कोई और नहीं बल्कि स्वयं पत्रकार ही हैं। समाज की संरचना को दुरुस्त रखने की जिम्मेदारी वाला पत्रकार आखिर पथ भ्रष्ट क्यूं हुआ।


इसका चिंतन पत्रकारों सेज्यादा उन भ्रष्ट नेता अफसरों को करने की जरूरत है जिन्होंने भ्रष्ट पत्रकारिता को अपने पापो पर पर्दा डालने के लिए पोषित किया? ऐसी पत्रकारिता के जनक बने । समाज ने जब पत्रकारिता धर्म के निर्वहन में कलमकार की उपेक्षा की तो बरमशंकरि पत्रकारिता का जन्म हुआ जो आज भस्मासुरी होकर सभी को जलाने भयभीत कर रही है। देश की सरक्षा का दायित्व सैनिक पर है, जो अपने जान की बाजी लगाकर भी वतन की आन बचाये रखता है। सिपाही को बार्डर के पार से आने वाली गोली से खतरा है लेकिन पत्रकारिता को भ्रष्टचारी, दुराचारी, मिलावटखोरों, कानुनी कर्यावाही, अपराधी और उन सभी से सतत खतरा है जिनके खिलाफ पाण्डेय, संपादक पत्रकार साहब ने खबर लिखी है। सामाजिक चेतना का वार्ता सिपाही आखिर भ्रष्ट क्यूं हुआ इसका चिंतन समाज को करना चाहिए? किसी ने खूब लिखा है, 'कुछ तो मजबूरियां रही होगी, यूं ही कोई बेबफा नहीं होता' यदि सत्य का समर्थन नहीं होगा सत्य सुनने का साहस समाज में नहीं होगा तो सत्य कहने वालों की उपेक्षा होना स्वभाविक है। आज पत्रकारिता निष्पक्ष और निर्भीक नहीं रही। पत्रकारिता से अच्छे चिंतन सील लोग दूर हो गये, शुद्ध घी को बेचने निकले तो कोई खरीददार ना मिला डालडा खाने वालों को शायद घी पचता ही नहीं, फिर भी मुट्ठी भर स्वाभिमानी पत्रकारों ने खुद को जिंदा रखा है। धन्यवाद तो उन्हें है जिन्हें सत्यतता को स्विकारने की आदत है। कोई पत्रकार जीवित रहे ना रहे पवित्र पत्रकारिता को जीवित रखना सर्वसमाज का काम है, जिस दिन समाज झूठ को झुठला देगा और सत्यता का सम्मान करने लगेगा सत्य पढ़ने की आदत डाल लेगा उस दिन पत्रकारिता फिर क्रान्ति और शांति का प्रतीक बन जाएगी जिस पर समाज एवं राष्ट्र को गर्व होगा।